BK Murli Hindi 18 June 2017

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Posted by: BK Prerana

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    Brahma Kumaris Murli Hindi 18 June 2017

    18-06-17 प्रात:मुरली ओम् शान्ति “अव्यक्त-बापदादा” रिवाइज:11-04-82 मधुबन 

    व्यर्थ का त्याग कर समर्थ बनो

    आज बापदादा अपने सर्व विकर्माजीत अर्थात् विकर्म सन्यासी आत्माओं को देख रहे हैं। ब्राह्मण आत्मा बनना अर्थात् श्रेष्ठ कर्म करना और विकर्म का सन्यास करना। हरेक ब्राह्मण बच्चे ने ब्राह्मण बनते ही यह श्रेष्ठ संकल्प किया कि हम सभी अब विकर्मा से सुकर्मा बन गये। सुकर्मा आत्मा श्रेष्ठ ब्राह्मण आत्मा कहलाई जाती है। तो संकल्प ही है विकर्माजीत बनने का। यही लक्ष्य पहले-पहले सभी ने धारण किया ना! इसी लक्ष्य को सामने रखते हुए श्रेष्ठ लक्षण धारण कर रहे हो। तो अपने आप से पूछो– विकर्मों का सन्यास कर विकर्माजीत बने हो? जैसे लौकिक दुनिया में भी उच्च रॉयल कुल की आत्मायें कोई साधारण चलन नहीं चल सकती, वैसे आप सुकर्मा आत्मायें विकर्म कर नहीं सकती। जैसे हद के वैष्णव लोग कोई भी तामसी चीज स्वीकार कर नहीं सकते, ऐसे विकर्माजीत, विष्णुवंशी विकर्म वा विकल्प यह तमोगुणी कर्म वा संकल्प नहीं कर सकते। यह ब्राह्मण धर्म के हिसाब से निषेध है। आने वाली जिज्ञासु आत्माओं के लिए भी डायरेक्शन लिखते हो ना कि सहजयोगी के लिए यह-यह बातें निषेध हैं, तो ऐसे ब्राह्मणों के लिए वा अपने लिए क्या-क्या निषेध है– वह अच्छी तरह से जानते हो? जानते तो सभी हैं और मानते भी सभी हैं लेकिन चलते नम्बरवार हैं। ऐसे बच्चों को देख बापदादा को इस बात पर एक हँसी की कहानी याद आई जो आप लोग सुनाते रहते हो। मानते भी हैं, कहते भी हैं लेकिन कहते हुए भी करते हैं। इस पर दूसरों को तोते की कहानी सुनाते हो ना। कह भी रहा है और कर भी रहा है। तो इसको क्या कहेंगे! ऐसा ब्राह्मण आत्माओं के लिए श्रेष्ठ लगता है? क्योंकि ब्राह्मण अर्थात् श्रेष्ठ। तो श्रेष्ठ क्या है– सुकर्म या साधारण कर्म? जब ब्राह्मण साधारण कर्म भी नहीं कर सकते तो विकर्म की तो बात ही नहीं। विकर्माजीत अर्थात् विकर्म, विकल्प के त्यागी। कर्मेंन्द्रियों के आधार से कर्म के बिना रह नहीं सकते। तो देह का सम्बन्ध कर्मेंन्द्रियों से है और कर्मेंन्द्रियों का सम्बन्ध कर्म से है। यह देह और देह के सम्बन्ध के त्याग की बात चल रही है। कर्मेंन्द्रियों का जो कर्म के साथ सम्बन्ध है– उस कर्म के हिसाब से विकर्म का त्याग। 

    विकर्म के त्याग बिना सुकर्मा वा विकर्माजीत बन नहीं सकते। विकर्म की परिभाषा अच्छी तरह से जानते हो। किसी भी विकार के अंशमात्र के वशीभूत हो कर्म करना अर्थात् विकर्म करना है। विकारों के सूक्ष्म स्वरूप, रॉयल स्वरूप दोनों को अच्छी तरह से जानते हो और इसके ऊपर पहले भी सुना दिया है कि ब्राह्मणों के रॉयल रूप के विकार का स्वरूप क्या है। अगर रॉयल रूप में विकार है वा सूक्ष्म अंशमात्र है तो ऐसी आत्मा सदा सुकर्मा बन नहीं सकती। अमृतवेले से लेकर हर कर्म में चेक करो कि सुकर्म किया वा व्यर्थ कर्म किया वा कोई विकर्म भी किया? सुकर्म अर्थात् श्रीमत के आधार पर कर्म करना। श्रीमत के आधार पर किया हुआ कर्म स्वत: ही सुकर्म के खाते में जमा होता है। तो सुकर्म और विकर्म को चेक करने की विधि यह सहज है। इस विधि के प्रमाण सदा चेक करते चलो। अमृतवेले के उठने के कर्म से लेकर रात के सोने तक हर कर्म के लिए श्रीमत मिली हुई है। उठना कैसे है, बैठना कैसे है, सब बताया हुआ है ना! अगर वैसे नहीं उठते तो अमृतवेले से श्रेष्ठ कर्म की श्रेष्ठ प्रालब्ध बना नहीं सकते अर्थात् व्यर्थ और विकर्म के त्यागी नहीं बन सकते। तो इस सम्बन्ध का भी त्याग। व्यर्थ का भी त्याग करना पड़े। कई समझते हैं कि कोई विकर्म तो किया नहीं। कोई भूल तो की नहीं। कोई ऐसा बोल तो बोला नहीं। लेकिन व्यर्थ बोल, समर्थ बनने नहीं देंगे अर्थात् श्रेष्ठ भाग्यवान बनने नहीं देंगे। अगर विकर्म नहीं किया लेकिन व्यर्थ कर्म भी किया तो वर्तमान और भविष्य जमा तो नहीं हुआ। श्रेष्ठ कर्म करने से वर्तमान में भी श्रेष्ठ कर्म का प्रत्यक्षफल खुशी और शक्ति की अनुभूति होगी। स्वयं के प्रति भी प्रत्यक्षफल मिल जाता है और दूसरे भी ऐसी श्रेष्ठ कर्मा आत्माओं को देख पुरूषार्थ के उमंग-उत्साह में आते हैं कि हम भी ऐसे बन सकते हैं। तो अपने प्रति प्रत्यक्षफल और दूसरों की सेवा। डबल जमा हो गया। और वर्तमान के हिसाब से भविष्य तो जमा हो ही जाता है। इस हिसाब से देखो कि अगर व्यर्थ अर्थात् साधारण कर्म भी किया तो कितना नुकसान हुआ। तो ऐसे कभी नहीं सोचो कि साधारण कर्म किया– यह तो होता ही है। 

    श्रेष्ठ आत्मा का हर कदम श्रेष्ठ, हर कर्म श्रेष्ठ, हर बोल श्रेष्ठ होगा। तो समझा त्याग की परिभाषा क्या हुई! व्यर्थ अर्थात् साधारण कर्म, बोल, समय, इसका भी त्याग कर सदा समर्थ, सदा अलौकिक अर्थात् पदमापदम भाग्यवान बनो। तो व्यर्थ और साधारण बातों को भी अण्डरलाइन करो। इसके अलबेलेपन का त्याग क्योंकि आप सभी ब्राह्मण आत्माओं का विश्व के मंच पर हीरो और हीरोइन का पार्ट है। ऐसी हीरो पार्टधारी आत्माओं का एक-एक सेकण्ड, एक-एक संकल्प, एक-एक बोल, एक-एक कर्म हीरे से भी ज्यादा मूल्यवान है। अगर एक संकल्प भी व्यर्थ हुआ तो जैसे हीरे को गँवाया। अगर कीमती से कीमती हीरा किसका गिर जाए, खो जाए तो वह सोचेगा ना– कुछ गँवाया है। ऐसे एक हीरे की बात नहीं। अनेक हीरों की कीमत का एक सेकण्ड है। इस हिसाब से सोचो। ऐसे नहीं कि साधारण रूप में बैठे-बैठे साधारण बातें करते-करते समय बिता दो। फिर क्या कहते– कोई बुरी बात तो नहीं की, ऐसे ही बातें कर रहे थे, ऐसे ही बैठे थे, बातें कर रहे थे। ऐसे ही चल रहे थे। यह ऐसे-ऐसे करते भी कितना समय चला जाता है। ऐसे ही नहीं लेकिन हीरे जैसे हैं। तो अपने मूल्य को जानो। आपके जड़ चित्रों का कितना मूल्य है। एक सेकण्ड के दर्शन का भी मूल्य है। आपके एक संकल्प का भी इतना मूल्य है जो आज तक उसको वरदान के रूप में माना जाता है। भक्त लोग यही कहते हैं कि एक सेकण्ड का सिर्फ दर्शन दे दो। तो दर्शन ‘समय’ की वैल्यु है, वरदान ’संकल्प’ की वैल्यु, आपके बोल की वैल्यु– आज भी दो वचन सुनने के लिए तड़पते हैं। आपके दृष्टि की वैल्यु आज भी नजर से निहाल कर लो, ऐसे पुकारते रहते हैं। आपके हर कर्म की वैल्यु है। बाप के साथ श्रेष्ठ कर्म का वर्णन करते गदगद होते हैं। तो इतना अमूल्य है आपका हर सेकण्ड, हर संकल्प। तो अपने मूल्य को जान व्यर्थ और विकर्म वा विकल्प का त्याग। तो आज त्याग का पाठ क्या पक्का किया? ’ऐसे ही ऐसे’ शब्द के अलबेलेपन का त्याग। 

    जैसे कहते हैं आजकल की चालू भाषा। तो ब्राह्मणों की भी आजकल चालू भाषा यह हो गई है। यह चालू भाषा छोड़ दो। हर सेकण्ड अलौकिक हो। हर संकल्प अलौकिक अर्थात् अमूल्य हो। वर्तमान और भविष्य डबल फल वाला हो। जैसे देखा है ना– कभी-कभी एक में दो इकठ्ठे फल होते हैं। दो फल इकठ्ठे निकल जाते हैं। तो आप श्रेष्ठ आत्माओं का सदा डबल फल है अर्थात् डबल प्राप्ति है। भविष्य के पहले वर्तमान प्राप्ति है और वर्तमान के आधार पर भविष्य प्राप्ति है। तो समझा– डबल फल खाओ। सिंगल नहीं। अच्छा। सदा विकर्माजीत, अमूल्य बन हर सेकण्ड को अमूल्य बनाने की सेवा में लगाने वाले ऐसे डबल हीरो, डबल फल खाने वाले, व्यर्थ और साधारण के महात्यागी, सदा बाप समान श्रेष्ठ संकल्प और कर्म करने वाले महा-महा भाग्यवान आत्माओं को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते। 

    पार्टियों के साथ 

    1- भरपूर आत्माओं के चेहरे द्वारा सेवा सभी सागर के समीप रहने वाले सदा सागर के खजानों को अपने में भरते जाते हो? सागर के तले में कितने खजाने होते हैं! तो सागर के कण्ठे पर रहने वाले, समीप रहने वाले– सर्व खजानों के मालिक हो गये। वैसे भी जब किसी को कोई खजाना प्राप्त होता है तो खुशी में आ जाते हैं। अचानक कोई को थोड़ा धन मिल जाता है तो नशा चढ़ जाता है। आप बच्चों को ऐसा धन मिला है जो कभी भी कोई छीन नहीं सकता, लूट नहीं सकता। 21 पीढ़ी सदा धनवान रहेंगे। सर्व खजानों की चाबी है “बाबा”। बाबा बोला और खजाना खुला। तो चाबी भी मिल गई, खजाना भी मिल गया। सदा मालामाल हो गये। ऐसे भरपूर मालामाल आत्माओं के चेहरे पर खुशी की झलक होती है। उनकी खुशी को देख सब कहेंगे– पता नहीं इनको क्या मिल गया है, जानने की इच्छा रहेगी। तो उनकी सेवा स्वत: हो जायेगी। 

    2- मायाजीत बनने के लिए स्वमान की सीट पर रहो: 

    सदा स्वयं को स्वमान की सीट पर बैठा हुआ अनुभव करते हो? पुण्य आत्मा हैं, ऊंचे ते ऊंची ब्राह्मण आत्मा हैं, श्रेष्ठ आत्मा हैं, महान आत्मा हैं, ऐसे अपने को श्रेष्ठ स्वमान की सीट पर अनुभव करते हो? कहाँ भी बैठना होता है तो सीट चाहिए ना! तो संगम पर बाप ने श्रेष्ठ स्वमान की सीट दी है, उसी पर स्थित रहो। स्मृति में रहना ही सीट वा आसन है। तो सदा स्मृति रहे कि मैं हर कदम में पुण्य करने वाली पुण्य आत्मा हूँ। महान संकल्प, महान बोल, महान कर्म करने वाली महान आत्मा हूँ। कभी भी अपने को साधारण नहीं समझो। किसके बन गये और क्या बन गये? इसी स्मृति के आसन पर सदा स्थित रहो। इस आसन पर विराजमान होंगे तो कभी भी माया नहीं आ सकती। हिम्मत नहीं रख सकती। आत्मा का आसन स्वमान का आसन है, उस पर बैठने वाले सहज ही मायाजीत हो जाते हैं। 

    3- सर्व सम्बन्ध एक के साथ जोड़कर बन्धनमुक्त अर्थात् योगयुक्त बनो: 

    सदा स्वयं को बन्धन-मुक्त आत्मा अनुभव करते हो? स्वतन्त्र बन गये या अभी कोई बन्धन रह गया है? बन्धन-मुक्त की निशानी है– सदा योगयुक्त। योगयुक्त नहीं तो जरूर बन्धन है। जब बाप के बन गये तो बाप के सिवाए और क्या याद आयेगा? सदा प्रिय वस्तु या बढि़या वस्तु याद आती है ना। तो बाप से श्रेष्ठ वस्तु या व्यक्ति कोई है? जब बुद्धि में यह स्पष्ट हो जाता है कि बाप के सिवाए और कोई भी श्रेष्ठ नहीं तो सहजयोगी बन जाते हैं। बन्धनमुक्त भी सहज बन जाते हैं, मेहनत नहीं करनी पड़ती। सब सम्बन्ध बाप के साथ जुड गये। मेरा-मेरा सब समाप्त, इसको कहा जाता है सर्व सम्बन्ध एक के साथ। 

    4- समीप आत्माओं की निशानी है– 

    समान सदा अपने को समीप आत्मा अनुभव करते हो? समीप आत्माओं की निशानी है समान। जो जिसके समीप होता है, उस पर उसके संग का रंग स्वत: ही चढ़ता है। तो बाप के समीप अर्थात् बाप के समान। जो बाप के गुण, वह बच्चों के गुण, जो बाप का कर्तव्य वह बच्चों का। जैसे बाप सदा विश्व कल्याणकारी है, ऐसे बच्चे भी विश्व कल्याणकारी। तो हर समय यह चेक करो कि जो भी कर्म करते हैं, जो भी बोल बोलते हैं, वह बाप समान हैं? जैसे बाप सदा सम्पन्न हैं, सर्वशक्तिमान हैं, वैसे ही बच्चे भी मास्टर बन जायेंगे। किसी भी गुण और शक्ति की कमी नहीं रहेगी। सम्पन्न हैं तो अचल रहेंगे। डगमग नहीं होंगे। 

    5- सेवा की भाग-दौड़ भी मनोरंजन का साधन है: 

    सभी अपने को हर कदम में याद और सेवा द्वारा पदमों की कमाई जमा करने वाले पदमापदम भाग्यवान समझते हो? कमाई का कितना सहज तरीका मिला है! आराम से बैठे-बैठे बाप को याद करो और कमाई जमा करते जाओ। मन्सा द्वारा बहुत कमाई कर सकते हो, लेकिन बीच-बीच में जो सेवा के साधनों में भाग-दौड़ करनी पड़ती है, यह तो एक मनोरंजन है। वैसे भी जीवन में चेन्ज चाहते हैं तो चेन्ज हो जाती है। वैसे कमाई का साधन बहुत है, सेकेण्ड में पदम जमा हो जाते हैं, याद किया और बिन्दी बढ़ गई। तो सहज अविनाशी कमाई में बिजी रहो। पंजाब निवासी बच्चों को याद प्यार देते हुए बापदादा बोले: पंजाब निवासी सेवाधारी बच्चों को सेवा के उमंग-उत्साह के प्रति सदा मुबारक हो। जितनी सेवा उतना बहुत-बहुत मेवा खाने वाले बनेंगे। यह मेला तो विशेष बेहद की सेवा है। मेला अर्थात् आत्माओं को मिलन कराने के निमित्त बन रहे हैं। बेहद की सेवा, बेहद का उमंग रख सेवा की है और सदा ऐसे उमंग-उत्साह में रहते आगे बढ़ते रहना। बापदादा जानते हैं, बहुत अच्छे पुराने पालना लिए हुए बच्चे निमित्त बने हैं। पुराने बच्चों का भाग्य तो अब तक शास्त्र भी गा रहे हैं और चैतन्य में जो नये-नये बच्चे आते हैं वह भी उनका वर्णन करते हैं। तो ऐसे पदमपति बनने का चान्स लेने वाले सेवाधारी बच्चों को पदमगुणा यादप्यार। अच्छा।


    वरदान:

    मन-बुद्धि से किसी भी बुराई को टच न करने वाले सम्पूर्ण वैष्णव व सफल तपस्वी भव

    पवित्रता की पर्सनैलिटी व रायल्टी वाले मन-बुद्धि से किसी भी बुराई को टच नहीं कर सकते। जैसे ब्राह्मण जीवन में शारीरिक आकर्षण व शारीरिक टचिंग अपवित्रता है, ऐसे मन-बुद्धि में किसी विकार के संकल्प मात्र की आकर्षण व टचिंग अपवित्रता है। तो किसी भी बुराई को संकल्प में भी टच न करना– यही सम्पूर्ण वैष्णव व सफल तपस्वी की निशानी है।

    स्लोगन:

    मन की उलझनों को समाप्त कर वर्तमान और भविष्य को उज्जवल बनाओ।



    ***OM SHANTI***