Avyakt BK Murli Hindi 24 April 2016

bk murli today

Posted by: BK Prerana

BK Prerana is executive editor at bkmurlis.net and covers daily updates from Brahma Kumaris Spiritual University. Prerana updates murlis in English and Hindi everyday.
Twitter: @bkprerana | Facebook: @bkkumarisprerana
Share:






    Avyakt BK Murli Hindi 24 April 2016

    24-04-16 प्रात:मुरली ओम् शान्ति “अव्यक्त-बापदादा” रिवाइज:05-04-81 मधुबन

    “समर्थ कर्मों का आधार – ‘धर्म’”

    आज बापदादा अपने विश्व परिवर्तक, विश्व कल्याणकारी बच्चों को देख रहे हैं। जब से ब्राहमण जीवन हुआ तब से इसी महान कर्तव्य का संकल्प किया। ब्राहमण जीवन का मुख्य कर्म ही यह है। मानव जीवन में हरेक आत्मा की विशेष दो धारणायें हैं - एक धर्म दूसरा कर्म। धर्म में स्थित होना है और कर्म करना है। धर्म के बिना जीवन के कर्म में सफलता मिल नहीं सकती। धर्म अर्थात् विशेष धारणा। मैं क्या हूँ? इसी धारणा अर्थात् धर्म के आधार से मुझे क्या करना है, वह बुद्धि में स्पष्ट होता है। चाहे यथार्थ धर्म अर्थात् धारणा हो, चाहे अयथार्थ हो। असमर्थ कर्म भी अयथार्थ धारणा है अर्थात् मैं मानव हूँ, मेरा धर्म ही मानव धर्म है, जिसको देह-अभिमान कहते हो। इसी धर्म के आधार पर कर्म भी उल्टे हुए। ऐसे ब्राहमण जीवन में भी यथार्थ यह धारणा है कि मैं श्रेष्ठ आत्मा हूँ। मैं आत्मा शान्त, सुख, आनंद स्वरूप हूँ। इसी आधार पर कर्म बदल गया। अगर कर्म में श्रेष्ठ के बजाए साधारण कर्म हो जाता है उसका भी आधार इसी धर्म अर्थात् धारणा की कमी हो जाती कि मैं श्रेष्ठ आत्मा हूँ, श्रेष्ठ गुणों का स्वरूप हूँ। तो फाउन्डेशन क्या हुआ? इसी कारण धर्मात्मा शब्द कहा जाता है। आप सब धमार्त्मा हो ना। धर्मात्माओं द्वारा स्वत: ही व्यर्थ वा साधारण कर्म समाप्त हो जाते हैं। पहले यह चेक करो कि सदा धर्म में स्थित रहता हूँ। तो कर्म स्वत: ही समर्थ चलता रहेगा। यही पहला पाठ है - मैं कौन? इसी ``मैं कौन ''के क्वेश्चन में सारा ज्ञान आ जाता है। मैं कौन, इसी प्रश्न के उत्तर निकालो तो कितनी लिस्ट बन जायेगी! अभी अभी सेकेण्ड में अगर स्मृति में लाओ तो कितने टाइटल्स याद आ जायेंगे क्योंकि कर्म के आधार पर सबसे ज्यादा टाइटल्स आपके हैं। जो बाप के टाइटल हैं वह सब आपके भी हैं, सबमें मास्टर हो गये हो ना! सारे कल्प के अन्दर टाइटल्स की लिस्ट इतनी बड़ी किसकी भी नहीं होगी। देवताओं की भी नहीं है। सिर्फ अपने टाइटल्स लिखने लगो तो छोटा सा पुस्तक बन सकता है। यह इस संगम के टाइटल्स आपकी डिग्री हैं। उन्हों की डिग्री भले कितनी भी बड़ी हो लेकिन आप लोगों के आगे वह कुछ नहीं है। इतना नशा रहता है? फिर भी शब्द यही आयेगा - मैं कौन? रोज़ नया नया टाइटल स्मृति में रखो अर्थात् उसी टाइटल के धारणा स्वरूप धर्मात्मा बन कर्म करो। कर्म करते धर्म को न छोड़ो, धर्म और कर्म का मेल होना - यही संगमयुग की विशेषता है।

    जैसे आत्मा और परमात्मा के टूटे हुए सम्बन्ध को बाप ने जोड़ लिया, ऐसे धर्म और कर्म के सम्बन्ध को भी जोड़ लो तब धर्मात्मा प्रत्यक्ष होंगे। आज बापदादा सर्व बच्चों का यही खेल देख रहे थे कि कौन धर्म और कर्म का मेल कर चलते हैं, एक को पकड लेते हैं, एक को छोड़ देते। जैसे कर्म योग, तो कर्म और योग का मेल है, अगर दोनों में से एक को छोड़ दें तो ऐसे ही होगा जैसे झूला झूलने में दोनों रस्सी जरूरी होती हैं, अगर एक रस्सी टूट जाए वा नीचे ऊपर हो जाए, वा छोटी बड़ी हो, समान न हो तो क्या हाल होगा! ऐसे ही धर्म और कर्म दोनों के मेल से सर्व प्राप्तियों के झूले में झूलते रहेंगे। नीचे ऊपर हो जाने से प्राप्ति के झूले से अप्राप्त स्वरूप का अनुभव कर लेते हो। चलते-चलते चेक करना नहीं आता इसलिए झूलने के बजाए चिल्लाने लग जाते हो कि क्या करें, कैसे करें? जैसे अज्ञानियों को कहते हो मैं कौन हूँ, यह पहली नहीं जानते हो। ऐसे अपने से पूछो मैं कौन हूँ? यह अच्छी तरह से जाना है? इसमें भी तीन स्टेजेज हैं। एक है जानना, दूसरा है स्वंय को मानना, तीसरा है मानकर चलना अर्थात् वह स्वरूप बनना। तो किस स्टेज तक पहुँचे हो? जानने में तो सब पास हो ना। मानने में भी सब पास हो। और तीसरा नम्बर है - मानकर चलना अर्थात् स्वरूप बनना, इसमें क्या समझते हो? जब स्वरूप बन गये तो स्वरूप कब भूल सकते हो क्या? भल करके देह समझना उल्टा है लेकिन स्वरूप तक आ गया तो भुलाते भी भूल नहीं सकता। भूलते हो ना। ऐसे ही हर टाइटल सामने रख करके देखो स्वरूप में लाया है? जैसे रोज़ बापदादा स्वदर्शन चक्रधारी का टाइटल स्मृति में दिलाते हैं। तो चेक करो - स्वदर्शन चक्रधारी, यह संगम का स्वरूप है, तो जानने तक लाया है वा मानने तक वा स्वरूप तक? सदा स्वदर्शन चलता है वा पर-दर्शन, स्वदर्शन को भुला देता है। यह देह को देखना भी परदर्शन है। स्व आत्मा है, देह पर है। प्रकृति है, पर है। प्रकृति भाव में आना भी प्रकृति के वशीभूत होना - यह भी परदर्शन चक्र है। जब अपनी देह को देखना भी परदर्शन हुआ तो दूसरे की देह को देखना इसको स्वदर्शन कैसे कहेंगे। व्यर्थ संकल्प वा पुराने संस्कार - यह भी देहभान के सम्बन्ध से हैं। आत्मिक स्वरूप के संस्कार, जो बाप के संस्कार वह आत्मा के संस्कार। बाप के संस्कार जानते हो! वह सदा विश्व कल्याणकारी, परोपकारी, रहमदिल, वरदाता.... ऐसे संस्कार नैचुरल स्वरूप में बने हैं? संस्कार बनना अर्थात् संकल्प, बोल और कर्म स्वत: ही उसी प्रमाण सहज चलना। संस्कार ऐसी चीज हैं जो आटोमेटिक आत्मा को अपने प्रमाण चलाते रहते। संस्कार समझो आटोमेटिक चाबी हैं जिसके आधार पर चलते रहते हो। जैसे खिलौने को नाचने की चाबी देते तो वह नाचता ही रहता। अगर किसको गिरने की देंगे तो गिरता ही रहेगा। ऐसे जीवन में संस्कार भी चाबी हैं। तो बाप के संस्कार निजी संस्कार बनाये हैं? जिसको दूसरे शब्दों में कहते हो - मेरी यह नेचर है। बाप समान नेचर हो जाए - सदा वरदानी, सदा उपकारी, सदा रहमदिल। तो मेहनत करनी पड़ेगी? जब मैं कौन हूँ को स्वरूप में लाओ, इसी धर्म को कर्म में अपनाओ तब कहेंगे स्वरूप तक लाया। नहीं तो जानने और मानने वाली लिस्ट में चले जायेंगे। सदा यह स्मृति रखो - मेरा धर्म ही यह है। इसी धर्म में सदा स्थित रहो, कुछ भी हो जाए, चाहे व्यक्ति, चाहे प्रकृति, चाहे परिस्थिति .. लेकिन आप लोगों का स्लोगन है `धरत परिये धर्म न छोड़िये।' इसी स्लोगन को अथवा प्रतिज्ञा को सदा स्मृति में रखो।

    इस समय कल्प पहले वाले पुराने सो नये बच्चे आये हैं। पुराने से पुराने भी हो और नये भी हो। नये बच्चे अर्थात् सबसे छोटे-छोटे सबसे लाडले होते हैं। नये पत्ते सबको सुन्दर लगते हैं ना। तो भल नये हैं लेकिन अधिकार में नम्बर वन। ऐसे सदा पुरूषार्थ करते चलो। सबसे पहला अधिकार है - पवित्रता का। उसके आधार पर सुख शान्ति सर्व अधिकार प्राप्त हो जाते। तो पहला पवित्रता का अधिकार लेने में सदा नम्बरवन रहना। तो प्राप्ति में भी नम्बरवन हो जायेंगे। पवित्रता के फाउन्डेशन को कभी कमजोर नहीं करना, तब ही लास्ट सो फास्ट जायेंगे। बापदादा को भी बच्चों को देख खुशी होती है कि फिर से अपना अधिकार लेने पहुँच गये हैं, इसलिए खूब रेस करो। अभी भी टूलेट का बोर्ड नहीं लगा है। सब सीट्स खाली हैं, फिक्स नहीं हुई हैं। जो नम्बर लेने चाहो वह ले सकते हो, इतना अटेन्शन रख चलते चलो। अधिकारी बनते चलो। योग्यताओं को धारण कर योग्य बनते चलो।

    ऐसे बाप सामन सदा श्रेष्ठ धर्म और श्रेष्ठ कर्मधारी, सदा धर्म-आत्मा, सदा स्वदर्शन चक्रधारी स्वरूप, सदा सर्व प्राप्ति स्वरूप, ऐसी श्रेष्ठ आत्माओं को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।

    होवनहार टीचर्स कुमारियों के ग्रुप से बापदादा की मुलाकात -

    यह ग्रुप होवनहार विश्व कल्याणकारी ग्रुप है ना! यही लक्ष्य रखा है ना। स्व-कल्याण कर विश्व कल्याणकारी बनेंगे, यही दृढ़ संकल्प किया है ना? बापदादा हर निमित्त बनी हुई श्रेष्ठ आत्माओं को देख खुश होते हैं कि यह एक एक कुमारी अनेक आत्माओं के कल्याण के प्रति निमित्त बनने वाली है। वैसे कुमारी को 100 ब्राह्मणों से उत्तम कहते हैं, लेकिन 100 भी हद हो गई। यह तो सब बेहद के विश्व कल्याणकारी हैं। बेहद की हो ना? हद का संकल्प भी नहीं। फिर सभी एक दो से रेस में आगे हो वा नम्बरवार हो? क्या समझती हो? हरेक में अपनी-अपनी विशेषता तो होगी लेकिन यहाँ सर्व विशेषताओं से सम्पन्न हो? जब सब विशेषतायें धारण करो तब सम्पन्न बनो। तो क्या लक्ष्य रखा है? बात बहुत छोटी है, कोई बड़ी बात नहीं है, संकल्प दृढ है तो प्राप्ति स्वत: हो जाती है। अगर सिर्फ संकल्प है, उसमें दृढ़ता नहीं तो भी अन्तर पड़ जाता है, कभी कहते हैं ना विचार तो है, करना तो चाहिए - इसको दृढ संकल्प नहीं कहेंगे। दृढ़ संकल्प अर्थात् करना ही है, होना ही है। तो ‘शब्द' निकल जाता है। बनना तो है, नहीं। लेकिन बनना ही है। यह लक्ष्य रखो तो नम्बरवन हो जायेंगे। सहज जीवन अनुभव होती है? मुश्किल तो नहीं लगता? कालेज का वातावरण प्रभाव तो नहीं ड़ालता? आपका वातावरण उन्हों पर प्रभाव डालता है? सदा निर्विघ्न रहना। स्व को देखना अर्थात् निर्विघ्न बनना। सुनाया ना - बाप के संस्कार सो अपने संस्कार, फिर जैसे निमित्त-मात्र कर रहे हैं लेकिन करावनहार बाप है। करन-करावनहार जो गाया जाता है, वह इस समय का ही प्रैक्टिकल अनुभव है। अच्छा एग्जाम्पुल बनी हो। सदा सपूत बन सबूत देते रहना। सपूत उसको ही कहा जाता है जो सबूत दे। कभी आपस में खिट-खिट तो नहीं होती है? नॉलेजफुल हो जाने से एक दो के संस्कार को भी जानकर संस्कार परिवर्तन की लगन में रहते हैं। यह नहीं सोचते कि यह तो ऐसे हैं ही लेकिन यह ऐसे से ऐसा कैसे बने, यह सोचेंगे। रहमदिल बनेंगे। घृणा दृष्टि नहीं, रहम की दृष्टि - क्योंकि नॉलेजफुल हो गये ना। सहज जीवन और श्रेष्ठ प्राप्ति, इस जैसा भाग्य और कब मिल सकता है? अच्छे सर्विसएबुल हैन्डस हैं, ऐसे ही हैन्डस निकलते जाए तो बहुत अच्छा। हिम्मते बच्चे मददे बाप। शक्तियाँ तो हैं ही विजयी। शक्ति की विजय न हो - यह हो नही सकता।

    दूसरा ग्रुप:- (पर्सनल मुलाकात)

    इस वर्ष हरेक बच्चे को यह विशेष अटेन्शन देना है कि हमें तीनों ही सर्टिफिकेट (मनपसंद, लोकपसंद और बाप पसंद) लेने हैं। मन पसंद का सर्टिफिकेट है या नहीं, उसकी परख बापदादा के कमरे में जाकर कर सकते हो, क्योंकि उस समय बाप बन जाता है दर्पण और उस दर्पण में जो कुछ होता है वह स्पष्ट दिखाई देता है। अगर उस समय बाप के आगे अपना मन सर्टिफिकेट देता है कि मैं ठीक हूँ तो समझो ठीक, अगर उस समय मन में चलता यह ठीक नहीं है, तो अपने को परिवर्तन कर देना चाहिए। अगर मानो मैजारिटी किसी बात के प्रति कोई इशारा देते हैं लेकिन स्वयं नहीं समझते कि मैं राँग हूँ, फिर भी जब लोक संग्रह के प्रति ऊपर से डायरेक्शन मिले कि यह अटेन्शन रखना चाहिए तो फिर उस समय अपनी नहीं चलानी चाहिए क्योंकि अगर सत्यता की शक्ति है तो सत्य को कहा ही जाता है –‘सत्यता महानता है’। और महान वही है जो स्वयं झुकता है। अगर मानो कल्याण के प्रति झुकना भी पड़ता है तो वह झुकना नही है। लेकिन महानता है अनेकों की सेवा के अर्थ महान को झुकना ही पड़ता है।

    तो यह विशेष अटेन्शन रखो। इसी में ही अलबेलापन आ जाता है। मैं ठीक हूँ, ठीक तो हो लेकिन जो ठीक रह सकता है वह स्वयं को मोल्ड भी कर सकता है। अगर मानो दूसरे को मेरी कोई चलन से कोई भी संकल्प उत्पन्न होता है तो स्वयं को मोल्ड करने में नुकसान ही क्या है। फिर भी सबकी आशीर्वाद तो मिल जायेगी। यह आशीर्वाद भी तो फायदा हुआ ना। क्यों, क्या में नहीं जाओ। यह क्यों, यह ऐसे होगा, वैसे होगा, इसको फुलस्टाप लगाओ। अब यह विशेषता चारों ओर लाइट हाउस के मुआि॰फक फैलाओ। इसको कहा जाता है - एक ने कहा दूसरे ने माना अर्थात् अनेकों को सुख देने के निमित्त। इसमें यह नहीं सोचो कि मैं कोई नीचे हो गया। नहीं। गलती की तभी मैं परिवर्तन कर रहा हूँ, सेवा के लिए स्थूल में भी कुछ मेहनत करनी पड़ती है ना। तो श्रेष्ठ, महान आत्मा बनने के लिए थोड़ा बहुत परिवर्तन भी किया तो हर्जा ही क्या है! इसमें हे अर्जुन बनो, इससे वातावरण बनेगा। एक से दो, दो से तीन। अगर कोई गलती है और मान ली तो यह कोई बड़ी बात नहीं है लेकिन गलती नहीं है और लोक संग्रह अर्थ करना पड़ता है। यह है महानता। इसमें अगर कोई समझाता भी है कि इसने यह किया अर्थात् नीचे हो गया, तो दूसरों के समझने से कुछ नहीं होता, बाप की लिस्ट में तो आगे नम्बर है ना। इसको दबना नहीं कहा जाता है। यह भी ब्राहमणों की भाषा होती है ना - कहाँ तक दबेंगे, कहाँ तक मरेंगे, कब तक सहन करेंगे, अगर यहाँ दबेंगे भी तो अनेक आपके पाँव दबायेंगे। यह दबना नहीं है लेकिन अनेकों के लिए पूज्य बनना है। महान बनना है। अच्छा।

    2. इस वर्ष ऐसा कोई नया प्लैन बनाओ जैसे मोहजीत परिवार की कहानी सुनाते हैं कि जिस भी सम्बन्धी के पास गया उसको ज्ञान सुनाया, तो यहाँ भी आप बच्चों से जब भी कोई मिलने आये तो उसको यही अनुभव हो कि मैं कोई फरिश्ते से मिल रहा हूँ। आने से ही उसे जादू लग जाए। जहाँ जाएं जिससे मिलें उससे जादू का ही अनुभव करें। जैसे शुरू-शुरू में बाप को देखा, मुरली सुनी, परिवार को देखा तो मस्त हो जाता था, ऐसे अभी भी जो सोचकर आवे उससे पदमगुणा अनुभव करके जाए। ऐसा अब प्लैन बनाओ। दृढ़ संकल्प से सब कुछ हो सकता है। अगर एक ऐसा अनुभव करायेगा तो सब उसको फालो करेंगे।


    वरदान:

    सन्तुष्टता की विशेषता वा श्रेष्ठता द्वारा सर्व के इष्ट बनने वाले वरदानी मूर्त भव!  

    जो सदा स्वयं से और सर्व से सन्तुष्ट रहते हैं वही अनेक आत्माओं के इष्ट व अष्ट देवता बन सकते हैं। सबसे बड़े से बड़ा गुण कहो, दान कहो या विशेषता वा श्रेष्ठता कहो-वह सन्तुष्टता ही है। सन्तुष्ट आत्मा ही प्रभूप्रिय, लोकप्रिय और स्वयं प्रिय होती है। ऐसी सन्तुष्ट आत्मा ही वरदानी रूप में प्रसिद्ध होगी। अभी अन्त के समय में महादानी से भी ज्यादा वरदानी रूप द्वारा सेवा होगी।

    स्लोगन:

    विजयी रत्न वह है जिसके मस्तक पर सदा विजय का तिलक चमकता हो।   


    Avyakt BK Murli Hindi 24 April 2016