BK Murli Hindi 21 May 2017

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Posted by: BK Prerana

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    Brahma Kumaris Murli Hindi 21 May 2017

    21-05-17 प्रात:मुरली ओम् शान्ति “अव्यक्त-बापदादा” रिवाइज:01-04-82 मधुबन 

    भाग्य का आधार त्याग


    आज भाग्य विधाता बापदादा अपने सर्व बच्चों के त्याग और भाग्य दोनों को देख रहे हैं। त्याग क्या किया है और भाग्य क्या पाया है– यह तो जानते ही हो कि एक गुणा त्याग उसके रिटर्न में पदमगुणा भाग्य मिलता है। त्याग की गुह्य परिभाषा जानते हुए भी जो बच्चे थोड़ा भी त्याग करते हैं तो भाग्य की लकीर स्पष्ट और बहुत बड़ी हो जाती है। त्याग की भी भिन्नभिन्न स्टेज हैं। वैसे तो ब्रह्माकुमार वा ब्रह्माकुमारी बने तो यह भी त्याग का भाग्य ब्राह्मण जीवन मिली। इस हिसाब से जैसे ब्राह्मण सभी कहलाते हो वैसे त्याग करने वाली आत्मा भी सब हो गये। लेकिन त्याग में भी नम्बर हैं, इसलिए भाग्य पाने में भी नम्बर हैं। ब्राह्मकुमार वा ब्रह्माकुमारी तो सब कहलाते हो लेकिन ब्रह्माकुमार-कुमारियों में से ही कोई माला का नम्बरवन दाना बना, कोई लास्ट दाना बना लेकिन हैं दोनों ही ब्रह्माकुमार-कुमारी। शूद्र जीवन सबने त्याग की फिर भी नम्बरवन और लास्ट का अन्तर क्यों? चाहे प्रवृत्ति में रह ट्रस्टी बन चल रहे हो, चाहे प्रवृत्ति से निवृत्त हो सेवाधारी बन सदा सेवाकेन्द्र पर रहे हुए हो लेकिन दोनों ही प्रकार की ब्राह्मण आत्मायें चाहे ट्रस्टी, चाहे सेवाधारी, दोनों ही ब्रह्माकुमारकुमारी कहलाते हो। सरनेम दोनों का एक ही है लेकिन दोनों का त्याग के आधार पर भाग्य बना हुआ है। ऐसे नहीं कह सकते कि सेवाधारी बन सेवाकेन्द्र पर रहना– यही श्रेष्ठ त्याग वा भाग्य है। ट्रस्टी आत्मायें भी त्याग वृत्ति द्वारा माला में अच्छा नम्बर ले सकती हैं। लेकिन सच्चे और साफ दिल वाला ट्रस्टी हो। भाग्य प्राप्त करने का अधिकार दोनों को है। लेकिन श्रेष्ठ भाग्य की लकीर खींचने का आधार है “श्रेष्ठ संकल्प और श्रेष्ठ कर्म।” चाहे ट्रस्टी आत्मा हो, चाहे सेवाधारी आत्मा हो दोनों इसी आधार द्वारा नम्बर ले सकते हैं। दोनों को फुल अथॉरिटी है भाग्य बनाने की। जो बनाने चाहें, जितना बनाना चाहें बना सकते हैं। संगमयुग पर वरदाता द्वारा ड्रामा अनुसार समय को वरदान मिला हुआ है। जो चाहे वह श्रेष्ठ भाग्यवान बन सकता है। ब्रह्माकुमार-कुमारी बनना अर्थात् जन्म से भाग्य ले ही आते हो। 

    जन्मते ही भाग्य का सितारा सर्व के मस्तक पर चमकता हुआ है। यह तो जन्म-सिद्ध अधिकार हो गया। ब्राह्मण माना ही भाग्यवान। लेकिन प्राप्त हुए जन्म सिद्ध अधिकार को वा चमकते हुए भाग्य के सितारे को कहाँ तक आगे बढ़ाते, कितना श्रेष्ठ बनाते जाते हैं वह हरेक के पुरूषार्थ पर है। मिले हुए भाग्य के अधिकार को जीवन में धारण कर कर्म में लाना अर्थात् मिली हुई बाप की प्रॉपर्टा को कमाई द्वारा बढ़ाते रहना वा खा के खत्म कर देना, वह हरेक के ऊपर है। जन्मते ही बापदादा सबको एक जैसा श्रेष्ठ ‘भाग्यवान भव का’ वरदान कहो वा भाग्य की प्रापर्टी कहो, एक जैसी ही देते हैं। सब बच्चों को एक जैसा ही टाइटल देते हैं– सिकीलधे बच्चे, लाडले बच्चे, कोई को सिकीलधे, कोई को न सिकीलधे नहीं कहते हैं। लेकिन प्रापर्टी को सम्भालना और बढ़ाना इसमें नम्बर बन जाते हैं। ऐसे नहीं कि सेवाधारियों को 10 पदम देते और ट्रस्टियों को 2 पदम देते हैं। सबको पदमापदमपति कहते हैं। लेकिन भाग्य रूपी खजाने को सम्भालना अर्थात् स्व में धारण करना और भाग्य के खजाने को बढ़ाना अर्थात् मन-वाणी-कर्म द्वारा सेवा में लगाना। इसमें नम्बर बन जाते हैं। सेवाधारी भी सब हो, धारणा मूर्त भी सब हो, परन्तु धारणा स्वरूप में नम्बरवार हो। कोई सर्वगुण सम्पन्न बने हैं, कोई गुण सम्पन्न बने हैं। कोई सदा धारणा स्वरूप हैं, कोई कभी धारणा स्वरूप, कभी डगमग स्वरूप। एक गुण को धारण करेंगे तो दूसरा समय पर कर्तव्य में ले नहीं सकेंगे। जैसे एक ही समय पर सहनशक्ति भी चाहिए और साथ-साथ समाने की शक्ति भी चाहिए। अगर एक शक्ति वा एक सहनशीलता के गुण को धारण कर लेंगे और समाने की शक्ति वा गुण को साथ-साथ यूज नहीं कर सकेंगे और कहेंगे कि इतना सहन तो किया ना। यह कोई कम किया क्या! यह भी मुझे मालूम है मैंने कितना सहन किया, लेकिन सहन करने के बाद अगर समाया नहीं, समाने की शक्ति को यूज नहीं किया तो क्या होगा? यहाँ-वहाँ वर्णन होगा इसने यह किया, मैंने यह किया, तो सहन किया, यह कमाल जरूर की लेकिन कमाल का वर्णन कर कमाल को धमाल में चेन्ज कर लिया क्योंकि वर्णन करने से एक तो देह-अभिमान और दूसरा परचिन्तन दोनों ही स्वरूप कर्म में आ जाते हैं। इसी प्रकार से एक गुण को धारण किया दूसरे को नहीं किया तो जो धारणा स्वरूप होना चाहिए वह नहीं बन पाते। इस कारण मिले हुए खजाने को सदा धारण नहीं कर सकते अर्थात् सम्भाल नहीं सकते। सम्भाला नहीं अर्थात् गंवा दिया ना! कोई सम्भालता है कोई गंवा देता है। नम्बर तो होंगे ही ना! ऐसे सेवा में लगाना अर्थात् भाग्य की प्रापर्टी को बढ़ाना। इसमें भी सेवा तो सभी करते ही हो लेकिन सच्चे दिल से, लगन से सेवा करना, सेवाधारी बन करके सेवा करना इसमें भी अन्तर हो जाता है। कोई सच्चे दिल से सेवा करते हैं और कोई दिमाग के आधार पर सेवा करते हैं। अन्तर तो होगा ना। दिमाग तेज है, प्वांइन्ट्स बहुत हैं, उसके आधार पर सेवा करना और सच्चे दिल से सेवा करना इसमें रात दिन का अन्तर है। दिल से सेवा करने वाला दिलाराम का बनायेगा। और दिमाग द्वारा सेवा करने वाला सिर्फ बोलना और बुलवाना सिखायेगा। वह मनन करता, वह वर्णन करता। एक हैं सेवाधारी बन सेवा करने वाले और दूसरे हैं नामधारी बनने के लिए सेवा करने वाले। फर्क हो गया ना। सच्चे सेवाधारी जिन आत्माओं की सेवा करेंगे उन्हों को प्राप्ति के प्रत्यक्षफल का अनुभव करायेंगे। 

    नामधारी बनने वाले सेवाधारी उसी समय नामाचार को पायेंगे– बहुत अच्छा सुनाया, बहुत अच्छा बोला, लेकिन प्राप्ति के फल की अनुभूति नहीं करा सकेंगे। तो अन्तर हो गया ना! ऐसे एक है लगन से सेवा करना, एक है डियुटी के प्रमाण सेवा करना। लगन वाले हर आत्मा की लगन लगाने के बिना रह नहीं सकेंगे। डियुटी वाला अपना काम पूरा कर लेगा, सप्ताह कोर्स करा लेगा, योगशिविर भी करा लेगा, धारणा शिविर भी करा लेगा, मुरली सुनाने तक भी पहुंचा लेगा, लेकिन आत्मा की लगन लग जाए इसकी जिम्मेवारी अपनी नहीं समझेंगे। कोर्स के ऊपर कोर्स करा लेंगे लेकिन आत्मा में फोर्स नहीं भर सकेंगे। और सोचेंगे मैंने बहुत मेहनत कर ली। लेकिन यह नियम है कि सेवा की लगन वाला ही लगन लगा सकता है। तो अन्तर समझा? यह है मिली हुई प्रापर्टी को बढ़ाना। इस कारण जितना सम्भालते हैं, जितना बढ़ाते हैं उतना नम्बर आगे ले लेते हैं। भाग्यविधाता ने भाग्य सबको एक जैसा बांटा लेकिन कोई कमाने वाले कोई गंवाने वाले बन जाते। कोई खाके खत्म करने वाले बन जाते इसलिए दो प्रकार की माला बन गई है और माला में भी नम्बर बन गये हैं। समझा नम्बर क्यों बने? तो बापदादा त्याग के भाग्य को देख रहे थे। त्याग की भी लीला अपरमअपार है। वह फिर सुनायेंगे। अच्छा। ऐसे श्रेष्ठ तकदीरवान, सदा श्रेष्ठ संकल्प और श्रेष्ठ कर्म द्वारा भाग्य की लकीर बढ़ाते रहने वाले सदा सच्चे सेवाधारी, सदा सर्व गुणों, सर्व शक्तियों को जीवन में लाने वाले, हर आत्मा को प्रत्यक्षफल अर्थात् प्राप्ति स्वरूप बनाने वाले, ऐसे श्रेष्ठ त्यागी और श्रेष्ठ भागी सदा बाप द्वारा मिले हुए अधिकार को, खजाने को सम्भालने और बढ़ाने वाले, ऐसे धारणा स्वरूप सदा सेवाधारी बच्चों को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते। 

    पार्टियों के साथ 

    1- ब्राह्मण सो फरिश्ता और फरिश्ता सो देवता– यह लक्ष्य सदा स्मृति में रखो: सभी अपने को ब्राह्मण सो फरिश्ता समझते हो? अभी ब्राह्मण हैं और ब्राह्मण से फरिश्ता बनने वाले हैं फिर फरिश्ता सो देवता बनेंगे– वह याद रहता है? फरिश्ता बनना अर्थात् साकार शरीरधारी होते हुए लाइट रूप में रहना अर्थात् सदा बुद्धि द्वारा ऊपर की स्टेज पर रहना। फरिश्ते के पांव धरनी पर नहीं रहते। ऊपर कैसे रहेंगे? बुद्धि द्वारा। बुद्धि रूपी पांव सदा ऊंची स्टेज पर। ऐसे फरिश्ते बन रहे हो या बन गये हो? ब्राह्मण तो हो ही– अगर ब्राह्मण न होते तो यहाँ आने की छुट्टी भी नहीं मिलती। लेकिन ब्राह्मणों ने फरिश्तेपन की स्टेज कहाँ तक अपनाई है? फरिश्तों को ज्योति की काया दिखाते हैं। तो जितना अपने को प्रकाश स्वरूप आत्मा समझेंगे, प्रकाशमय तो चलते फिरते अनुभव करेंगे जैसे प्रकाश की काया वाले फरिश्ते बनकर चल रहे हैं। फरिश्ता अर्थात् अपनी देह के भान का भी रिश्ता नहीं, देहभान से रिश्ता टूटना अर्थात् फरिश्ता। देह से नहीं, देह के भान से। देह से रिश्ता खत्म होगा तब तो चले जायेंगे लेकिन देहभान का रिश्ता खत्म हो। तो यह जीवन बहुत प्यारी लगेगी। फिर कोई माया भी आकर्षण नहीं करेगी। अच्छा। 

    2- हम अल्लाह के बगीचे के पुष्प हैं– इस स्वमान में रहो– सदा अपने को बापदादा के अर्थात् अल्लाह के बगीचे के फूल समझकर चलते हो? सदा अपने आप से पूछो कि मैं रूहानी गुलाब बन सदा रूहानी खुशबू फैलाता हूँ? जैसे गुलाब की खुशबू सबको मीठी लगती है, चारों ओर फैल जाती है, तो वह है स्थूल, विनाशी चीज और आप सब अविनाशी सच्चे गुलाब हो। तो सदा अविनाशी रूहानियत की खुशबू फैलाते रहते हो? सदा इसी स्वमान में रहो कि हम अल्लाह के बगीचे के पुष्प बन गये– इससे बड़ा स्वमान और कोई हो नहीं सकता। ’वाह मेरा श्रेष्ठ भाग्य’– यही गीत गाते रहो। भोलानाथ से सौदा कर लिया तो चतुर हो गये ना! किसको अपना बनाया है? किससे सौदा किया है? कितना बड़ा सौदा किया है? तीनों लोक ही सौदे में ले लिए। आज की दुनिया में सबसे बड़े ते बड़ा कोई भी धनवान हो लेकिन इतना बड़ा सौदा कोई नहीं कर सकता, इतनी महान आत्मायें हो– इस महानता को स्मृति में रखकर चलते चलो। 

    3- ब्राह्मणों का कर्तव्य है– खुशी का दान कर महादानी बनना– सबसे बड़े से बड़ा खजाना, खुशी का खजाना है, जो खजाना अपने पास होता है उसे दान किया जाता है। आप खुशी के खजाने का दान करते रहो। जिसको खुशी देंगे वह बार-बार आपको धन्यवाद देगा। दु:खी आत्माओं को खुशी का दान दे दिया तो आपके गुण गायेंगे। महादानी बनो, खुशी के खजाने बांटो। अपने हमजिन्स को जगाओ। रास्ता दिखाओ। सेवा के बिना ब्राह्मण जीवन नहीं। सेवा नहीं तो खुशी नहीं इसलिए सेवा में तत्पर रहो। रोज किसी न किसी को दान जरूर करो। दान करने के बिना नींद ही नहीं आनी चाहिए। 

    प्रश्न: 

    बापदादा के गले में कौन से बच्चे माला के रूप में पिरोये रहते हैं? 

    उत्तर: 

    जिनके गले अर्थात् मुख द्वारा बाप के गुण, बाप का दिया हुआ ज्ञान वा बाप की महिमा निकलती रहती, जो बाप ने सुनाया वही मुख से आवाज निकलता, ऐसे बच्चे बापदादा के गले का हार बन गले में पिरोये रहते हैं। अच्छा– ओम् शान्ति। 


    वरदान:

    शान्ति की शक्ति से, संस्कार मिलन द्वारा सर्व कार्य सफल करने वाले सदा निर्विघ्न भव

    सदा निर्विघ्न वही रह सकता है जो सी फादर, फालो फादर करता है। सी सिस्टर, सी ब्रदर करने से ही हलचल होती है इसलिए अब बाप को फालो करते हुए बाप समान संस्कार बनाओ तो संस्कार मिलन की रास करते हुए सदा निर्विघ्न रहेंगे। शान्ति की शक्ति से अथवा शान्त रहने से कितना भी बड़ा विघ्न सहज समाप्त हो जाता है और सर्व कार्य स्वत: सम्पन्न हो जाते हैं।

    स्लोगन:

    त्रिकालदर्शी वह है जो किसी भी बात को एक काल की दृष्टि से नहीं देखते, हर बात में कल्याण समझते हैं।



    ***OM SHANTI***