BK Murli HIndi 28 May 2017

bk murli today

Posted by: BK Prerana

BK Prerana is executive editor at bkmurlis.net and covers daily updates from Brahma Kumaris Spiritual University. Prerana updates murlis in English and Hindi everyday.
Twitter: @bkprerana | Facebook: @bkkumarisprerana
Share:







    28-05-17 प्रात:मुरली ओम् शान्ति “अव्यक्त-बापदादा” रिवाइज: 03-04-82 मधुबन 
    सर्वप्रथम त्याग है– देह-भान का त्याग

    बापदादा अपने त्यागमूर्त बच्चों को देख रहे हैं। हर एक ब्राह्मण आत्मा त्याग स्वरूप है– लेकिन जैसे भाग्य का सुनाया ना कि एक बाप के बच्चे होते, एक जैसा भाग्य का वर्सा मिलते, सम्भालने और बढ़ाने के आधार पर नम्बर बन जाते हैं। ऐसे त्याग मूर्त तो सभी बनें हैं, इसमें भी नम्बरवार हैं। त्याग किया और ब्राह्मण बनें लेकिन त्याग की परिभाषा बड़ी गुह्य है। कहने में तो सभी एक बात कहते कि तन-मन-धन, सम्बन्ध सबका त्याग कर लिया। लेकिन तन का त्याग अर्थात् देह के भान का त्याग। तो देह के भान का त्याग हो गया है वा हो रहा है? त्याग का अर्थ है किसी भी चीज को वा बात को छोड़ दिया, अपने पन से किनारा कर लिया, अपना अधिकार समाप्त हुआ। जिसके प्रति त्याग किया वह वस्तु उसकी हो गई। जिस बात का त्याग किया उसका फिर संकल्प भी नहीं कर सकते क्योंकि त्याग की हुई बात, संकल्प द्वारा प्रतिज्ञा की हुई बात फिर से वापिस नहीं ले सकते हो। जैसे हद के सन्यासी अपने घर का, सम्बन्ध का त्याग करके जाते हैं और अगर फिर वापिस आ जाएं तो उसको क्या कहा जायेगा! नियम प्रमाण वापिस नहीं आ सकते। ऐसे आप ब्राह्मण बेहद के सन्यासी वा त्यागी हो। आप त्याग मूर्तियों ने अपने इस पुराने घर अर्थात् पुराने शरीर, पुराने देह का भान त्याग किया, संकल्प किया कि बुद्धि द्वारा फिर से कब इस पुराने घर में आकर्षित नहीं होंगे। संकल्प द्वारा भी फिर से वापिस नहीं आयेंगे। पहला-पहला यह त्याग किया इसलिए तो कहते हो देह सहित देह के सम्बन्ध का त्याग। देह के भान का त्याग। तो त्याग किए हुए पुराने घर में फिर से वापिस तो नहीं आ जाते हो! वायदा क्या किया है? तन भी तेरा कहा वा सिर्फ मन तेरा कहा? पहला शब्द “तन” आता है। जैसे तन-मन-धन कहते हो, देह और देह के सम्बन्ध कहते हो। तो पहला त्याग क्या हुआ? इस पुराने देह के भान से विस्मृति अर्थात् किनारा। यह पहला कदम है त्याग का। जैसे घर में घर की सामग्री (सामान) होती है, ऐसे इस देह रूपी घर में भिन्न-भिन्न कर्मेन्द्रियां ही सामग्री हैं। तो घर का त्याग अर्थात् सर्व का त्याग। घर को छोड़ा लेकिन कोई एक चीज में ममता रह गई तो उसको त्याग कहेंगे? ऐसे कोई भी कर्मेन्द्रिय अगर अपने तरफ आकर्षित करती है तो क्या उसको सम्पूर्ण त्याग कहेंगे? इसी प्रकार अपनी चेंकिग करो। ऐसे अलबेले नहीं बनना कि और तो सब छोड़ दिया बाकी कोई एक कर्मेन्द्रिय विचलित होती है वह भी समय पर ठीक हो जायेगी। लेकिन कोई एक कर्मेन्द्रिय की आकर्षण भी एक बाप का बनने नहीं देगी। एकरस स्थिति में स्थित होने नहीं देगी। नम्बरवन में जाने नहीं देगी। अगर कोई हीरेजवाहर, महल-माडि़यां छोड़ दे और सिर्फ कोई मिट्टी के फूटे हुए बर्तन में भी मोह रह जाए तो क्या होगा? जैसे हीरा अपनी तरफ आकर्षित करता, वैसे हीरे से भी ज्यादा वह फूटा हुआ बर्तन उसको अपनी तरफ बार-बार आकर्षित करेगा। न चाहते भी बुद्धि बार-बार वहाँ भटकती रहेगी। ऐसे अगर कोई भी कर्मेन्द्रिय की आकर्षण रही हुई है तो श्रेष्ठ पद पाने से बार-बार नीचे ले आयेगी। तो पुराने घर और पुरानी सामग्री सबका त्याग चाहिए। ऐसे नहीं समझो यह तो बहुत थोड़ा है, लेकिन यह थोड़ा भी बहुत कुछ गंवाने वाला है, सम्पूर्ण त्याग चाहिए। इस पुरानी देह को बापदादा द्वारा मिली हुई अमानत समझो। सेवा अर्थ कार्य में लगाना है। यह मेरी देह नहीं लेकिन सेवा अर्थ अमानत है। जैसे मेहमान बन देह में रह रहे हैं। थोड़े समय के लिए बापदादा ने कार्य के लिए आपको यह तन दिया है। तो आप क्या बन गये? मेहमान! मेरे-पन का त्याग और मेहमान समझ महान कार्य में लगाओ। मेहमान को क्या याद रहता है? असली घर याद रहता है या उसी में ही फंस जाते हो! तो आप सबका यह शरीर रूपी घर भी यह फरिश्ता स्वरूप है, फिर देवता स्वरूप है। उसको याद करो। इस पुराने शरीर में ऐसे ही निवास करो जैसे बापदादा पुराने शरीर का आधार लेते हैं लेकिन शरीर में फंस नहीं जाते हैं। कर्म के लिए आधार लिया और फिर अपने फरिश्ते स्वरूप में स्थित हो जाओ। अपने निराकारी स्वरूप में स्थित हो जाओ। न्यारेपन की ऊपर की ऊंची स्थिति से नीचे साकार कर्मेन्द्रियों द्वारा कर्म करने लिए आओ, इसको कहा जाता है मेहमान अर्थात् महान। ऐसे रहते हो? त्याग का पहला कदम पूरा किया है? बापदादा हंसी की बात यह सुनते हैं कि वर्तमान समय कोई भी अपने को कम नहीं समझते। अगर किसी को भी कहा जाए कि दो में से एक छोटा, एक बड़ा बन जाए तो क्या करते हैं! अपने को कम समझते हैं? क्यों, क्या के शस्त्र लेकर उल्टा शक्ति स्वरूप दिखाते हैं। यह भी अलंकार कोई कम नहीं हैं। जैसे सर्व शक्तियों के अलंकार हैं, वैसे माया वा रावण की भुजायें भी कोई कम नहीं हैं। शक्तियों को भुजायें धारी दिखाया है। अष्ट भुजाधारी, 16 भुजाधारी भी दिखाते हैं लेकिन रावण के सिर ज्यादा दिखाते हैं। यह क्यों? क्योंकि रावण माया की शक्ति पहले दिमाग को ही हलचल में लाती है। जिस समय कोई भी माया आती है तो सेकेण्ड में उसके कितने रूप होते हैं? क्यों, क्या, ऐसे, वैसे, जैसे कितने क्वेश्चन के सिर पैदा हो जाते हैं। एक काटते हैं तो दूसरा पैदा हो जाता है। एव ही समय में 10 बातें बुद्धि में फौरन आ जाती हैं। तो एक बात को 10 सिर लग गये ना! इन बातों का तो अनुभव है ना? फिर एक-एक सिर अपना रूप दिखाता है। यही 10 शीश के शस्त्रधारी बन जाते हैं। शक्ति अर्थात् सहयोगी। अभिमान के सिर वाली शक्ति नहीं लेकिन सदा सर्व भुजाधारी अर्थात् सर्व परिस्थिति में सहयोगी। रावण के 10 सिर वाली आत्मायें हर छोटी-सी परिस्थिति में भी कभी सहयोगी नहीं बनेंगी। क्यों, क्या, कैसे के सिर द्वारा अपना उल्टा अभिमान प्रत्यक्ष करती रहेंगी। क्यों का क्वेश्चन हल करेंगी तो फिर कैसे का सिर ऊंचा हो जायेगा अर्थात् एक बात को सुलझायेंगी तो फिर दूसरी बात शुरू कर देंगी। दूसरी बात को ठीक करेंगी तो तीसरा सिर पैदा हो जायेगा। बार-बार कहेंगे यह बात तो ठीक है लेकिन यह क्यों? वह क्यों? इसको कहा जाता है कि एक बात के 10 शीश लगाने वाली शक्ति। सहयोगी कभी नहीं बनेंगे, सदा हर बात में अपोजीशन करेंगे। तो अपोजीशन करने वाले रावण सम्प्रदाय हो गये ना। चाहे ब्राह्मण बन गये लेकिन उस समय के लिए आसुरी शक्ति का प्रभाव होता है, वशीभूत होते हैं। और शक्ति स्वरूप हर परिस्थिति में, हर कार्य में सदा सहयोगी होंगे। सहयोग की निशानी भुजायें हैं, इसलिए कभी भी कोई संगठित कार्य होता है तो क्या शब्द बोलते हो? अपनी-अपनी अंगुली दो, तो यह सहयोग देना हुआ ना। अंगुली भी भुजा में है ना। तो भुजायें सहयोग की ही निशानी हैं। तो समझा शक्ति की भुजायें और रावण के सिर। तो अपने को देखो कि सदा के सहयोगी मूर्त बने हैं? त्याग मूर्त बनने का पहला कदम फालो फादर के समान किया है? ब्रह्मा बाप को देखा, सुना– संकल्प में, मुख में सदैव क्या रहा? यह बाप का रथ है। तो आपका रथ किसका है? क्या सिर्फ ब्रह्मा ने रथ दिया वा आप लोगों ने भी रथ दिया? ब्रह्मा का प्रवेशता का पार्ट अलग है लेकिन आप सबने भी तन तेरा कहा– न कि तन मेरा। आप सबका भी वायदा है जैसे चलाओ, जहाँ बिठाओ... यह वायदा है ना? वा आंख को मैं चलाऊंगा, बाकी को बाप चलायें? कुछ मनमत पर चलेंगे, कुछ श्रीमत पर चलेंगे। ऐसा वायदा तो नहीं है ना? तो कोई भी कर्मेन्द्रिय के वशीभूत होना– यह श्रीमत है वा मनमत है? तो समझा, त्याग की परिभाषा कितनी गुह्य है! इसलिए नम्बर बन गये हैं। अभी तो सिर्फ देह के त्याग की बात सुनाई है। आगे और बहुत हैं। अभी तो त्याग की सीढि़यां भी बहुत हैं, यह पहली सीढ़ी की बात कर रहे हैं। त्याग मुश्किल तो नहीं लगता? सबको छोड़ना पड़ेगा। अगर पुराने के बदले नया मिल जाए तो मुश्किल है क्या! अभी-अभी मिलता है। भविष्य मिलना तो कोई बड़ी नहीं लेकिन अभी-अभी पुराना भान छोड़ो, फरिश्ता स्वरूप लो। जब पुरानी दुनिया के देह का भान छोड़ देते हो तो क्या बन जाते हो? डबल लाइट। अभी ही बनते हो। परन्तु अगर न यहाँ के न वहाँ के रहते हो तो मुश्किल लगता है। न पूरा छोड़ते हो, न पूरा लेते हो तो अधमरे हो जाते हो, इसलिए बार-बार लम्बा श्वास उठाते हो। कोई भी बात मुश्किल होती तो लम्बा श्वास उठता है। मरने में तो मजा है– लेकिन पूरा मरो तो। लेने में कहते हो पूरा लेंगे और छोड़ने में मिट्टी के बर्तन भी नहीं छोड़ेंगे इसलिए मुश्किल हो जाता है। वैसे तो अगर कोई मिट्टी का बर्तन रखता है तो बापदादा रखने भी दें, बाप को क्या परवाह है, भले रखो। लेकिन स्वयं ही परेशान होते हो इसलिए बापदादा कहते हैं छोड़ो। अगर कोई भी पुरानी चीज रखते हो तो रिजल्ट क्या होती है? बार-बार बुद्धि भी उन्हों की ही भटकती है। फरिश्ता बन नहीं सकते इसलिए बापदादा तो और भी हजारों मिट्टी के बर्तन दे सकते हैं– कितने भी इकठ्ठे कर लो लेकिन जहाँ किचड़ा होगा वहाँ क्या पैदा होंगे? मच्छर! और मच्छर किसको काटेंगे? तो बापदादा बच्चों के कल्याण के लिए ही कहते हैं पुराना छोड़ दो। अधमरे नहीं बनो। मरना है तो पूरा मरो, नहीं तो भले ही जिंदा रहो। मुश्किल है नहीं लेकिन मुश्किल बना देते हो। कभी-कभी मुश्किल हो जाता है। जब रावण के सिर लग जाते हैं तो मुश्किल होता है। जब भुजाधारी शक्ति बन जाते हो तो सहज हो जाता है। सिर्फ एक कदम सहयोग देना और पदम कदमों का सहयोग मिलना हो जाता। लेकिन पहले जो एक कदम देना पड़ता है उसमें घबरा जाते हो। मिलना भूल जाता है, देना याद आ जाता है इसलिए मुश्किल अनुभव होता है। अच्छा!

    ऐसे सदा सहयोग मूर्त, सदा त्याग द्वारा श्रेष्ठ भाग्य अनुभव करने वाले, कदम-कदम में फालो फादर करने वाले सदा अपने को मेहमान अर्थात् महान आत्मा समझने वाले, ऐसे बेहद के सन्यास करने वाले श्रेष्ठ आत्माओं को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।

    पार्टियों के साथ– अव्यक्त बापदादा की मुलाकात 

    1- परिस्थिति रूपी पहाड़ को स्वस्थिति से जम्प देकर पार करो

    अपने को सदा समर्थ आत्मायें समझते हो! समर्थ आत्मा अर्थात् सदा माया को चेलेन्ज कर विजय प्राप्त करने वाले। सदा समर्थ बाप के संग में रहने वाले। जैसे बाप सर्वशक्तिमान है वैसे हम भी मास्टर सर्वशक्तिमान हैं। सर्व शक्तियां शस्त्र हैं, अलंकार हैं, ऐसे अलंकारधारी आत्मा समझते हो? जो सदा समर्थ हैं वे कभी परिस्थितियों में डगमग नहीं होंगे। परिस्थिति को पार कर सकते हो। जैसे विमान द्वारा उड़ते हुए कितने पहाड़, कितने समुद्र पार कर लेते हैं, क्योंकि ऊंचाई पर उड़ते हैं। तो ऊंची स्थिति से सेकेण्ड में पार कर लेंगे। ऐसे लगेगा जैसे पहाड़ को वा समुद्र को भी जम्प दे दिया। मेहनत का अनुभव नहीं होगा।

    2- रोब को त्याग रूहाब को धारण करने वाले सच्चे सेवाधारी बनो

    सभी कुमार सदा रूहानियत में रहते हो, रोब में तो नहीं आते? यूथ को रोब जल्दी आ जाता है। यह समझते हैं हम सब कुछ जानते हैं, सब कर सकते हैं। जवानी का जोश रहता है। लेकिन रूहानी यूथ अर्थात् सदा रूहाब में रहने वाले। सदा नम्रचित क्योंकि जितना नम्रचित होंगे उतना निर्माण करेंगे। जहाँ निर्माण होंगे वहाँ रोब नहीं होगा, रूहानियत होगी। जैसे बाप कितना नम्रचित बनकर आते हैं, ऐसे फालो फादर। अगर जरा भी सेवा में रोब आया तो वह सेवा समाप्त हो जाती है। अच्छा– ओम् शान्ति।


    वरदान:

    बाप की समीपता के अनुभव द्वारा स्वप्न में भी विजयी बनने वाले समान साथी भव

    भक्ति मार्ग में समीप रहने के लिए सतसंग का महत्व बताते हैं। संग अर्थात् समीप वही रह सकता है जो समान है। जो संकल्प में भी सदा साथ रहते हैं वह इतने विजयी होते हैं जो संकल्प में तो क्या लेकिन स्वप्न मात्र भी माया वार नहीं कर सकती। सदा मायाजीत अर्थात् सदा बाप के समीप संग में रहने वाले। कोई की ताकत नहीं जो बाप के संग से अलग कर सके।

    स्लोगन:

    सदा निर्विघ्न रहना और सर्व को निर्विघ्न बनाना-यही यथार्थ सेवा है।